खेल

 खेलों से हमारा मनोरंजन होता है, दिमाग तेज होता है तथा खिलाड़ी भावना का विकास होता है। बच्चों में उत्साह एवं उमंग का संचार करने के लिए यहाँ कुछ रोचक खेलों की रुपरेखाबताई जा रही है। इनके अनुसार खेल खिलाये जाये तो बच्चों को मजा आयेगा तथा एक नया संदेश मिलेगा। 
कोड़ा जमालशाही पीछे देखे मार खाई 
   सारे बच्चे एक घेरे में बैठ जाते हैं। सबके मुँह अन्दर की ओर रहते हैं। एक बालक कोड़ा लेकर सब बालकों के पीछे भागता है और किसी एक के पीछे डाल देता हैं। यदि बालक पहचान लेता है, कि कोड़ा मेरे पीछे पड़ा है तो वह कोड़ा डालने वाले के पीछे दौड़ता है और कोड़ा डालने वाला खाली स्थान पर बैठने की कोशिश करता है। यदि वह तेज दौड़कर बैठा नहीं है पाता है तो पीछा करने वाला उसके दो जमाता है।यदि कोई खिलाड़ी पीछे देखता है तो कोड़ा लेकर दौड़ने वाला देखने वाले के दो कोड़े जमाता है। जिस बालक के पीछे कोड़ा रखा जाता है यदि वह देख न पाये तो कोड़ा रखने वाला घूमकर आकर उसकी पीठ पर दो कोड़े लगाता है और वह उठकर भागने लगता है और पहले वाला उसके खाली स्थान पर बैठ जाता है।यदि वह देख न पाये तो कोड़ा लगाता है और वह उठकर भागने लगता है और पहले वाला उसके खाली स्थान पर बैठ जाता है। 
जेल का घेरा 
इस खेले में सब खिलाड़ी एक गोल घेरे में एक दूसरे का हाथ थाम कर खडे़ होते हैं। अब इनमें से एक खिलाड़ी बँदी बनता है। वह घेरे के अन्दर बन्द हो जाता है और जेल के बाहर आने की कोशिश करता है। बाहर निकलने पर वह अन्दर आने की कोशिश करता है। घेरे के सभी खिलाड़ी इस बात का प्रयत्न करते हैं कि वह बाहर से अन्दर न आने पाये यदि वह अन्दर आ जाता है तो विजयी माना जाता है और उसकी जगह दूसरा खिलाड़ी ले लेता है। यदि देर तक कैदी बाहर या अन्दर नहीं आ पाता है तो उसे असफल मान लिया जाता है और दूसरा खिलाड़ी उसकी जगह ले लेता हैं। 
साँप और नेवला 
इस खेल में एक फूर्तीला खिलाड़ी नेवला बनता है। बाकी सब खिलाड़ी एक दूसरे के पीछे झुक कर खड़े हो जाते हैं। सब से बड़ा खिलाड़ी सबसे आगे, उससे छोटा उससे पीछे और इसी तरह नम्बर वार सबसे छोटा आखिर में रहता है। इसमें सबसे आगे का खिलाड़ी साँप का फन और सबसे पीछा का खिलाड़ी साँप की पूँछ कहलाता है। खेल शुरू करने के लिए साँप अपने सिर को ऊँचा करके अपने दोनों हाथ फैलाता है और मुँह से बड़े जोर से साँप जैसी आवाज ’हिस’ करता है। इस पर सब खिलाड़ी भी वैसी ही आवाज ’हिस‘ करने लगता हैं।
अब नेवला साँप के आगे कुछ फासले पर खड़ा हो जाता है। साँप ’हिस‘ करता हुआ दौड़कर नेवले को पकड़ने की कोशिश करता है। नेवला साँप से इधर- उधर बचते हुए उसकी पूँछ पकड़ने की कोशिश करता है। साँप की पूँछ भी इधर- उधर को बचने की कोशिश करता है।
अगर साँप नेवले को पकड़ लेता है तो नेवले की हार होती है और अगर नेवला साँप की दुम पकड़ लेता है तो साँप की हार होती है।दूसरी बार खेल शुरू करने के लिए नया साँप और नया नेवला चुने जाते है।
किल- किल काँटा 
इस खेल में सबसे पहले खिलाड़ियों को दो टोलियों में बाँट लिया जाता हैं। फिर सब खेलने वालों को कोयला या खड़िया मिट्टी दे दी जाती है। इसके बाद दोनों टोलियों के खिलाड़ी अलग- अलग दिशा में चले जाते हैं और वे पत्थर, जमीन- ईंट, दीवार या वृक्ष पर जहाँ उचित स्थान उन्हें मिलता है, कोयला या मिट्टी से लकीरे खींचते चले जाते हैं। इस खेल में लकीरें खींचने का समय पहले से ही तय कर लिया जाता है। खिलाड़ी नियत समय के भीतर रेखाएँ खींचने काम समाप्त कर देते हैं।
नियत समय के समाप्त होने पर दोनों टोलियों के खिलाड़ी विपक्षी टोली द्वारा खींची रेखाओं की खोज करते हैं। और उन्हें काटते जाते हैं। जो रेखायें काटने से बच जाती हैं, उन्हें गिन लिया जाता है। जिस टोली की संख्या अधिक होती है, वही जीतती है। इस खेल मॅं लकीर दुकानों की दीवारों, किवाड़ों, उनके आगे के पत्थर पर नहीं, वरन् ऐसी जगह खींची जाती हैं जहाँ वे भद्दी न लगें और आसानी से मिटाई जा सकें।
शेर या बकरी 
खिलाड़ियों को 8- 8 की टोलियों में बाँट कर समानान्तर कतारों में खड़ा कर दिया जाता है। इन्हीं कतारों के बीच में एक खिलाड़ी शेर और दूसरा बकरी बन जाता है। कतारों में खड़े खिलाड़ी अपने अपने हाथ फैलाकर फासला लेकर खड़े हो जाते हैं। शिक्षिका की सीटी बजने पर सभी खिलाड़ी दोनों हाथों को फैलाकर दाहिने घूमेंगे। शिक्षिका की दूसरी सीटी बजने पर हाथ फैलाकर बायें घूमेंगे। इस तरह लाइनें बदलती रहेंगी। कभी 2 शेर व बकरी एक ही लाइन में पड़ जायेंगी और शेर को बकरी पकड़ने में आसानी होगी। यदि शेर बकरी को पकड़ लेता है तो शेर बकरी बन जाता है और बकरी है। जब सभी खिलाड़ी शेर और बकरी बनते तो आधे खिलाड़ी शेर और आधे खिलाड़ी बकरी बना दिये जाते हैं और शिक्षिका की सीटी बजने पर शेरदहाड़ते हुए हुम हुम कहेंगे और बकरियाँ में कहेंगी। शेर और खेल पूर्ववत् प्रारम्भ हो जाता है। इसके बाद बकरी के पकड़ने पर अन्य दो खिलाड़ियों को शेर और बकरी बना दिया जाता है और खेल चलता रहता। 
सब्जा घोड़ा और सवार 
इस खेल में एक बच्चा सब्जा घोड़ा बनता है और दूसरा उसकी पसन्द का सवार। बाकी सब बच्चे घोड़े के खरीदार बनते हैं।
सवार फिर अपने घोड़े पर चढ़ कर किसी एक जगह खड़ा हो जाता है और खरीदार बच्चों से कहता है-
‘‘सब्जा घोड़ा लाल लगाम
लगा दिये हैं सस्ते दाम!’’
बाकी बच्चे, जो कि खरीददार बने हुए हैं, सवार से पूछते हैं-
‘‘ सब्जा घोड़ा लाल लगाम
जल्दी बोलो, कितना दाम!’’
सवार फिर बच्चों से कहता हैं-
‘‘जो नर मेरा घोड़ो लेवे,
सवा लाख फौरन गिन देवे!’’ 
खरीदार बच्चे सवार को जवाब देते हैं- 
‘‘सड़ियल घोड़ा, सड़ी लगाम?
इसका, अरे, यहाँ क्या काम?’’ 
यह सुनते ही सवार गुस्से में आकर खरीदारों को पकड़ने दौड़ता है। खरीदार इधर- उधर भागते हैं। जिस खरीदार को वह छू लेता है, वह घोड़ा बनता है और जो अब तक घोड़ा बनता था, वह सवार बन जाता है। 
जब सवार खरीदारों को छूने दौड़ता है तो दूसरे खरीदार घोड़े पर चड्ढी गाँठने की कोशिश करते हैं। सवार को चाहिये कि दूसरे खरीदार उसके घोड़े की सवारी न कर सकें। 
झंडा आक्रमण 
  यह खेल दो टोलियों में खेला जाता है। प्रत्येक खिलाड़ी सिर पर स्कार्फ हल्का- हल्का बाँध लेता है और हर एक के हाथ या अंगुली में तीन रबर के छल्ले पहना दिये जाते हैं। दोनों टीमों की आधार रेखा बना दी जाती है और दोनों रेखाओं के बीच में लगभग 100 मीटर का फासला रहता है। प्रत्येक टीम अपने- अपने क्षेत्र में झंडा गाड़ लेती है। खेल शुरू होने पर प्रत्येक टीम दूसरे का झंडा उखाड़कर खिलाने वाले को देने की चेष्टा करती है। जो टीम पहले झंडा दे देती है वही जीतती है। 
झंडा झपटने के बीच खिलाड़ी एक दूसरे का स्कार्फ छीनने की कोशिश करते हैं। जिसका स्कार्फ छिन जाता है, उसे वह वापस तभी मिलता है, जब वह अपना रबर बैंड छीनने वाले का दे देता है। इस तरह जब तीनों रबर बैंड छिन जाते हैं तब वह खिलाड़ी खेल से बाहर कर दिया जाता है।     यह रबर बैंड तीन जीवन माने जाते हैं। यदि निर्धारित अवधि के अन्दर झंडा नहीं ले पाते हैं तो प्रत्येक टीम के पास के रबर बैंड गिन लिये जाते हैं, जिसके पास अधिक रबर बैंड होते है वह जीती हुई मानी जाती है। 
कुर्सी दौड़ 
    इस खेल में जितने खिलाड़ी होंगे उसमें 2 कम कुर्सियाँ एक घेरे में इस तरह रख दी जायेगी कि उनका सामना बाहर की ओर हो। सभी खिलाड़ी कुर्सियों के बाहर घेरे में खड़े हो जायेंगे। शिक्षक के सीटी बजने पर सभी खिलाड़ी घेरे में चाव- चाव -चाव कहते हुए दौड़ते हैं। शिक्षिका के दूसरी सीटी बजने पर खिलाड़ी अपने सामने की या निकट की कुर्सी पर बैठ जायेंगे। जो खिलाड़ी कुर्सी पर बैठने से बच जायेंगे वे आउट माने जायेंगे और शिक्षिका दो कुर्सीयाँ उठाकर बीच में रख देंगी। इस पर कोई नहीं बैठेगा। शिक्षिका फिर सीटी बजायेगी और खिलाड़ी पहले की तरह दौड़ेंगे के अगली सीटी बजने पर खिलाड़ी कुर्सियों पर बैठेंगे।जो खिलाड़ी बैठने से रह जायेंगे वे आउट होते जायेंगे। खेल इसी प्रकार चलता रहेगा और अन्त में एक कुर्सी और दो खिलाड़ी बच जायेंगे। अन्त में जो खिलाड़ी कुर्सी पर बैठ जायेगा, वह लीडर होगा और उसकी जय बोली जायेगी। 
सैल्यूट और हाथ मिलाना- 
   दाहिने हाथ की हथेली से स्काउट- गाइड चिन्ह बनाते हैं, इसमें छोटी उँगली को अँगुठे से दबाते हैं तथा बीच की तीनों उँगलियाँ खड़ी रहती है। सैल्यूट के समय हाथ को कोहनी से मोड़ते हुए, उँगलियाँ दाहिनी आँख की भौंह (आईब्रो) के पास ले जाते हैं। 
एक- दूसरे से हाथ मिलाते समय बाँया हाथ मिलाया जाता है। क्योंकि बांयी तरफ दिल होता है अर्थात् हम सच्चे दिल से मित्रता का हाथ बढ़ाते हैं। 
जीवन साधना के 14 स्वर्णिम सूत्र 
   परम् पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने स्काउट आन्दोलन को बड़ा महत्व दिया है। आपने मानव जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए चैदह सूत्र बताये हैं, जो स्काउट के नियम, प्रतिज्ञाओं तथा आदर्शों से मिलते- जुलते हैं। उनका संक्षिप्त में विवेचन निम्नानुसार है:- 
1. आस्तिकता (ईश्वर विश्वास)- 
ईश्वर विश्वास मानवी नैतिकता का मेरूदण्ड है। उसे हर कीमत पर सुरक्षित रखा जाना चाहिए। जनमानस में ईश्वरीय अनुशासन की आस्था दृढ़तापूर्वक जमी रहनी चाहिए। उसे सर्वव्यापी, निष्पक्ष, न्यायकारी मानने से कर्मफल ‘परलोक’ पुर्नजन्म के तीनों सिद्धान्तों पर विश्वास जमता है। यही आत्म- नियंत्रण है जिसके अकुंश से मनुष्य स्वेच्छापूर्वक सन्मार्गगामी बना रह सकता है। अपने परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनाया जाय। नित्य ध्यान अपने सम्बन्धियों को करने की प्रेरणा देनीचाहिए।
2. आध्यात्मिकता (आत्मविश्वास- आत्मनिष्ठा)- 
अपने गौरव एवं वर्चस्व को सदा ध्यान में रखा जाय। अपनी मूलसत्ता को ईश्वर का पवित्र एवं समर्थ अंश माना जाय। अपने भीतर छिपी अगणित विशेषताओं को ध्यान में रखा जाय और उन्हें जागृत करने के लिए इस सद्बुद्धिदायक मन्त्र का मानसिक जप एवं सविता देव के प्रकाश का निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाय। गुण, कर्म, स्वभाव, की उत्कृष्टता को अपनी सबसे बड़ी पूजा समझा जाय और इस आधार पर उत्पन्न हुई आत्मशक्ति की मात्रा को जीवन की वास्तविक सफलता का अनुभव किया जाय। मनुष्य शरीर को ईश्वर प्रदत्त् सर्वोपरि उपहार और सौभाग्य माना जाय। समझा मानकर उसके चित्र के सम्मुख नित्य मस्तक झुकाना, न्युनतम पाँच मिनट बैठा जाय तथा यह चिंतन किया जाय कि इतना साधन सम्पन्न शरीर सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को नहीं मिला। 
3. धार्मिकता (कर्तव्यनिष्ठा)
नैतिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए अपने को कठोर अनुशासन में बाँधकर रखा जाय। धर्म का अर्थ हैकर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह। अपने प्रति तथा दूसरोंके प्रति कर्तव्य पालन में तत्परता बरती जाय। धर्म को प्रथा -परम्पराओं के बन्धन में न बाँधा जाय। उसे मानवीय कर्तव्य पालन के रूप में देखा, समझा जाय और सच्चे अर्थों में धार्मिक बना जाय। 
4. प्रगतिशीलता (आत्मोत्कर्ष)
अपने ज्ञान, अनुभव एवं दृष्टिकोण का विकास एवं परिष्कार उतना ही आवश्यक है, जितना आरोग्य संरक्षण और धन उपार्जन। मनुष्य की वास्तविक पूँजी उसकी आत्मिक प्रखरता की कही जा सकती है अस्तु इस दिशा मंे अपने प्रयत्न अनवरत रूप से चलते रहने चाहिए। आत्म- समीक्षा के लिए मनन और आत्म निर्माण के लिए चिंतन अनिवार्य नित्य कर्म माना जाय। स्वाध्याय की तरह उसके लिए कोई समय प्रातः आँख खुलते ही और रात्रि को सोने का समय सुनिश्चित रखा जाय। दोनों समय 15- 15 मिनट तो इस कार्य में लगाने ही चाहिए। 
5.संयमशीलता (इन्द्रिय संयम)- 
शरीर से जुड़ी ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेन्द्रियाँ ज्ञान वृद्धि, औचित्य का निर्णय, उत्साह, प्रयत्न, निर्वाह के उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में सहायता देने के लिए हैं। उनका सही कार्य में सही उपयोग करने पर 
  ही उस लाभ से लाभान्वित हुआ जा सकता है जिसके लिए परमेश्वर ने इन्हें प्रदान किया हैं। इन्द्रिय शक्ति के दुरूपयोग से, असंयम से केवल हानि ही हानि है। संयमशीलता में इंद्रिय संयम, समयसंयम, विचारसंयम एवं अर्थसंयम का अभ्यास करना होता है। 
6. समस्वरता (मानसिक सन्तुलन)- 
   मस्तिष्कीय समस्वरता को हर स्थिति में अक्षुण्ण रखा जाय। प्रिय और अप्रिय परिस्थितियाँ हर किसी के जीवन में आती हैं, उनमें उद्विग्न हो उठने से मानसिक तन्त्र गड़बड़ा जाता हैं। औरउत्तेजित स्थिति में ऐसे निर्णय एवं काम करता रहता है, जो हास्यास्पद होते हैं। मानसिक सन्तुलन का चिन्ह है, प्रसन्नता व्यक्त करने वाली मुखाकृति और रचनात्मक चिन्तन करने वाला दूरदर्शी स्वभाव। जो उपल्बध है उस पर सन्तोष एवं आनन्द, अनुभव किया जाय, अधिक प्राप्त करने और आगे बढ़ने के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्नरत रहा जाय पर यह सब खिलाड़ी की मनःस्थिति रख कर ही होना चाहिए। 
7. पारिवारिकता (आत्मविस्तार की प्रक्रिया)- 
   व्यक्ति और समाज के बीच की कड़ी परिवार है। परिवार वह खदान है, जिसके सही होने पर उसमें से नर रत्न निकल सकते हैं और देश को हर दृष्टि से गौरवान्वित कर सकते है। हमें परिवारों का वातावरण ऐसा बनाना चाहिए जिससे जन्मा, पला और बड़ा हुआ व्यक्ति हर दृष्टि से सुयोग्य सुविकसित बन सके। 
8. समाजिकता (नागरिकता)- 
   मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समूह में सबके साथ ही रह सकता है एकाकी कोई भी सुख चैन से नहीं रह सकता। दूसरों के साथ वही व्यवहार किया जाय जो हम दूसरों से अपने प्रति किए जाने की अपेक्षा करते हैं। इस कसौटी पर जो भी कार्य खरे उतरे उन्हें नैतिक एवं सामाजिक कहा जा सकता है। हमें किसी के नागरिक अधिकारों का हनन नहीं करना चाहिए। प्रचलित अनैतिकताओं, कुरीतियों एवं मूढ़ मान्यताओं को निरस्त करने के लिए प्रयत्नशील रहा जाय, जिससे समाज का सही दिशा में विकास हो सके। 
9. शालीनता (स्वच्छता एवं सादगी)- 
   स्वच्छता मनुष्य की जागरूकता, सुरूचि एवं कलात्मक दृष्टिकोण की परिचायक है उससे मनुष्य की सौन्दर्यप्रियता व सतर्कता का प्रमाण मिलता है। मनुष्य की सुरूचि का, उसके सभ्यता के स्तर का पता इस बात से लगता है की उसका स्वभाव कितना स्वच्छता प्रिय है। शरीर की तरह ही पहनने और ओढ़ने के कपड़े भली प्रकार धोये, सुखाये जाने चाहिए। घर, कमरों को ठीक तरह बुहारा जाय और वस्तुओं को स्वच्छ बनाकर यथा स्थान सुसज्जित रूप से रखा जाय। अपनेंपरिधान, वेश- विन्यास एवं उपकरणों में सादगी, सस्तेपन का समावेश होना चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनाना चाहिए। 
10. नियमितता (समय और श्रम का सन्तुलन)- 
   समय ही जीवन की आवश्यक सम्पति हैं दुनिया के बाजार में से अभीष्ट वस्तुएँ समय और श्रम को मूल्य देकर ही खरीदी जाती हैं। प्रत्येक क्षण को बहुमूल्य माना जाय और समय का कोई भी अंश आलस्य- प्रमाद में नष्ट न होने पाये। इसका पूरा- पूरा ध्यान रखा जाय। घड़ी को सच्ची सहचरी बनाया जाय। अपनी दिनचर्या इस प्रकार बनायी जाय जिससे सभी दैनिकउत्तरदायित्वों का समुचित समावेश हो। सफाई, भोजन, शयन, व्यायाम आदि की शरीर यात्रा- आजीविका उपार्जन, सुव्यवस्था की तो दिनचर्या में प्रधानता रहे ही पर सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति के लिए भी कुछ समय उसमें सम्मिलित रहना चाहिए। सोकर उठने से लेकर रात्रि को सोते समय तक की पूरी दिनचर्या हर रोज निर्धारित कर ली जाय और शक्ति भर यह प्रयत्न किया जाय की हर कार्य समय पर पूरा होता रहें। 
11. प्रमाणिकता (ईमानदारी- जिम्मेदारी)- 
धन सम्बन्धी ईमानदारी और कर्तव्य सम्बन्धी जिम्मेदारी का समन्वय किसी व्यक्ति को प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित बनाता है। हर व्यक्ति को अपनी योग्यता बढ़ाकर तथा कठोर श्रम करके अधिक उर्पाजन, उत्पादन करना चाहिए, तभी राष्ट्रीय समृद्धि और व्यक्तिगत क्षमता का विकास होगा, किन्तु जो पैसा कमाया जाय वह न्यायनीति युक्त एवं श्रम उपार्जित होना चाहिए, बेईमानी, मिलावट, रिश्वत, मुनाफाखोरी के उर्पाजन को भी चोरी, लूट, ठगी, डकैती जैसे बड़े अपराधों की कोटी में ही गिनना चाहिए। हराम की कमाई, जुआ, सट्टा, लाटरी, चोरी, बेईमानी अथवा उत्तराधिकार में मिली सम्पति गर्हित मानी जाय। संग्रही, अपव्ययी लोगों का तिरस्कार किया जाय, तभी अर्थ पवित्रता का, ईमानदारी का प्रचलन होगा और तभी धन उपार्जन का समुचित लाभ उठाया जा सकेगा। 
12. विवेकशीलता (औचित्य की ही मान्यता)- 
अपनी संस्कृति कभी बहुत ही उच्च कोटि की थी उसकी श्रेष्ठ परम्पराएँ संसार भर में सम्मानित होती थी। पर पिछले अधंकारयुग में विदेशी दासता के साथ- साथ अनेकों विकृतियाँ घुस पड़ी हैं और उसमें कुरीतियों, अधंविश्वासों और मूढ़ मान्यताओं ने जड़ जमा ली है। जैसे ऊँच- नीच की मान्यता मृत्युभोज, दहेज, भिक्षावृत्ति, पशुबली, बालविवाह भूतप्रेत, भाग्यवाद आदि। हमें विवेकशील होना चाहिए और इन अवांछनीयताओं से अविलम्ब छुटकारा पाना चाहिए। 
13. परमार्थ परायणता (अंशदान)
हर मनुष्य के पास (1) समय, (2) श्रम, (3) बुद्धि, (4) धन- से चार सम्पदायें होती हैं। इनमें से समय और श्रमशक्ति युक्त जीवन तो विशुद्ध रूप से ईश्वर प्रदत है। बुद्धि भी उन्ही की देन है। इसे विकसित करने में चिरकाल से असंख्य लोगों द्वारा संचित अनुभवों के संग्रह का ही योगदान रहता है। इन चारोंसम्पतियों को भगवान की एवं समाज की अमानत माना जाय और इनके द्वारा मात्र अपना की स्वार्थ सिद्ध नहीं करते रहा जाय वरन् परमार्थ प्रयोजनों के लिए भी अंश दान किया जाय। युग निर्माण परिवार के प्रत्येक परिजन को ज्ञानघट में न्यूनतम एक रूपया प्रतिदिन निकालने और एक घण्टा नित्य विचारक्रांन्ति के लिए जन सम्पर्क में लगाने का कर्तव्य नियत किया गया है। 
14. प्रखरता (साहस एवं पराक्रम)- 
सज्जनता, नम्रता, उदारता आदि सद्गुणों की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाय कि प्रखरता के बिना यह विशेषताएँ भी अपनी उपयोगिता खो बैठती है और लोग सज्जन को मुर्ख, दब्बू, चापलूस, साहसहीन, भोला एवं दयनीय समझने लगते हैं। हर व्यक्ति को निर्भीक और साहसी होना चाहिए। इसके लिए उद्दण्डता की सीमा तक जाने की या आतंकवादी बनने की आवश्यकता नहीं है। सज्जनता के साथ निर्भीकता और साहसिकता जुड़ी रहे तभी उसका कुछ मूल्य है। 
उपरोक्त चौदह गुण, समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बराबर हैं, इन्हें जीवन में उतारने पर जीवन में निखार आता है तथा एक सच्चा स्काउट कहलाने का सौभाग्य बनता है। 
पारिवारिक पंचशील 
प्राचीन काल में हर एक साधक को प्रारंभ में यम- नियम साधने पड़ते थे। उसके अन्तर्गत सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि की साधना अनिवार्य है। उस समय के सामाजिक वातावरण में वे सर्वसाधारण के लिए साध्य रहे होंगे। परन्तु आज की स्थिति में वैसा संभव नहीं दिखता। अब तो व्यावहारिक पंचशीलों का परिपालन आदतों में सम्मिलित हो सके, तो भी काम चल जायेगा। श्रमशीलता, मितव्ययिता, शिष्टता, सुव्यस्था और सहकारिता के पंचशील हमारे क्रिया- कलाप में पूरी तर घुल- मिल सकें, तो समझना चाहिए कि प्राचीन काल की तप- साधना के समतुल्य साधनात्मक साहस बन पड़ा। 
1. श्रमशीलता:- आलस्य, प्रमाद, विलासिता, ठाट- बाट आदि के कारण आदमी बुरी तरह हरामखोर बन गया है। उपलब्ध शक्ति का एक चैथाई भाग भी उत्पादक श्रम में नियोजित नहीं हो पाता। निठल्लेपन में शारीरिक, मानसिक असमर्थता पनपती है। आर्थिक तथा दूसरी सभी प्रगतियों का द्वार बन्द हो जाता है। श्रम के बिना शरीर निरोग एवं सशक्त भी नहीं रह सकता। श्रम के बिना उत्पादन भी संभव नहीं। समाज में विडम्बनाएँ इसी कारण पनपती रही हैं, कि नर- नारी श्रम न करने में बड़प्पन अनुभव करने लगे, कामचोरी- कम से कम श्रम करके अधिक लाभ पाने की प्रवृतियाँ समाज को अपंग जैसा बनाये दे रही है। 
2. मितव्ययिता:- अपव्यय आज का दूसरा अभिशाप है। दुव्र्यसनों में, फैशन तथा सज- धज जैसे आडम्बरों में उतना समय और पैसा खर्च होता है कि उसे बचा लेने पर अपने तथा दूसरों के अनेकों प्रयोजन सध सकते हैं। फिजूलखर्ची का कोई अन्त नहीं, उसे किसी भी सीमा तक किया जा सकता है। उसकी ललक जब उभरती है तो पूरा कर सकना साधारण श्रम, कौशल के लिए संभव ही नहीं हो पाता। तब बेईमानी, बदमाशी का आश्रय लिए बिना काम नहीं चलता। 
‘‘सादा जीवन- उच्च विचार’’ वाली उत्कृष्टता का तो एक प्रकार से समापन ही होता जाता है। उदारता को चरितार्थ करने का अवसर तो तब मिले, जब अपव्यय से कुछ बचे। 3. शिष्टता:- शिष्टता, सभ्यता की आधारशिला है और अशिष्टता, अनगढ़पनकी सबसे बुरी प्रतिक्रिया है। यह उक्ति बहुत महत्वपूर्ण है कि‘‘शालीनता बिना मोल मिलती, है परन्तु उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।’’ शालीनता का जिन्हें अभ्यास है, उनके परिवार में कभी कलह नहीं होती, सौमनस्य का स्वर्गीय वातावरण बना रहता है। शालीन व्यक्ति के मित्र- सहयोगी अनायास ही बढ़ते चले जातेे हैं, जब कि अशिष्ट व्यक्ति अपनों को भी पराया कर डालता है। जीवन की सफलता में शालीनता का असाधारण योगदान रहता है। 
4. सुव्यवस्था:- सुव्यवस्था का तात्पर्य है अपने समय, श्रम, मनोयोग, शरीर, सामथ्र्य आदि का सुनियोजन। उन्हें इस प्रकार सँभाल- सँभाल कर सुनियोजि रखा जाना चाहिए कि उनको अस्त- व्यस्तता से बचाया जा सके और अधिकाधिक समय तक उनका समुचित लाभ उठाया जा सके। इसी को जीवन प्रबंधन कहते हैं। इसी को गीता में ‘‘योगः कर्मसु कौशलम्।’’ कहा है। 
5. सहकारिता:- पाँचवाँ शील है- सहकारिता। मिल- जुल कर काम करना। आदान- प्रदान का उपक्रम बनाये रहने में सतर्कता बरतना। परिवार में, कारोबार में, लोक व्यवहार में सामंजस्य बनाये रह सकना तभी बन पड़ता है, जब उदारता भरी सहकारिता को अपने सभी क्रिया- कलापों में सुनियोजित रखा जा सके। 
    बड़े कार्य संयुक्त शक्ति से ही सम्पन्न हो पाते हैं। देव शक्तियों के सहयोग से दुर्गा के प्रादुर्भाव की कथा सर्वविदित है संकीर्ण स्वार्थपरता के स्थान पर उदार सहकारिता की प्रवृत्ति जगाने से, वैसा अभ्यास बनाने से ही संघशक्ति जागृत होती है। 
खेल खेल Reviewed by Harshit on March 27, 2020 Rating: 5

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